पटोला साड़ी | patola sarees | पटोला साड़ी in Hindi

पटोला साड़ी


खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग (KVIC) ने अपनी एक ऐतिहासिक पहल के तहत् 4 जनवरी, 2020 को गुजरात के सुरेन्द्रनगर में प्रथम सिल्क प्रोसेसिंग प्लांट का उद्घाटन किया।
जिससे रेशम के धागे की उत्पादन लागत को काफी कम करने के साथ-साथ गुजराती पटोला साड़ियों के लिए स्थानीय स्तर पर कच्चे माल की उपलब्धता एवं बिक्री बढ़ाने में मदद मिलेगी।




पटोला गुजरात मूल की एक प्रकार की रेशमी साड़ी है, जिसे बुनाई के पहले पूर्व निर्धारित नमूने के अनुसार ताने और बाने को गाँठकर रंग दिया जाता है।

गुजरात की ट्रेडमार्क साड़ी 'पटोला' अत्यंत महँगी मानी जाती है और केवल शाही एवं धनाढ्य परिवारों की महिलाएं ही इसे पहनती हैं।

कारण यह है कि इसके कच्चे माल रेशम के धागे को कर्नाटक अथवा पश्चिम बंगाल से खरीदा जाता है, जहाँ सिल्क प्रोसेसिंग इकाइयाँ (यूनिट) स्थित हैं।
इसी वजह से फैब्रिक की लागत कई गुना बढ़ जाती है।

पाटन पटोला साड़ी का इतिहास 900 वर्ष पुराना है।

कहा जाता है कि 12वीं शताब्दी में सोलंकी वंश के राजा कुमरपाल ने महाराष्ट्र के जलना से बाहर बसे 700 पटोला बुनकरों को पाटन में बसने के लिए बुलाया और इस तरह पाटन पटोला की परम्परा शुरू हुई।


राजा अक्सर विशेष अवसरों पर पटोला सिल्क का पट्टा ही पहनते थे।

पाटन में केवल तीन ऐसे परिवार हैं, जो ओरिजनल पाटन पटोला साड़ी के कारोबार को कर रहे हैं और इस विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं।
इस विरासत को जीआई टैग भी मिला हुआ है।


पटोला साड़ी की सबसे बड़ी खासियत है कि इसे दोनों तरफ से पहना जा सकता है, इसे 'डबल इकत' आर्ट कहते हैं।  


डबल इकत में धागे को लम्बाई और चौड़ाई दोनों तरह से आपस में क्रॉस करते हुए फँसाकर बुनाई की जाती है।

इसके चलते साड़ी में ये अंतर करना मुश्किल है कि कौनसी साइड सीधी है और कौन सी उल्टी।
इस जटिल बुनाई के चलते ही यह आर्ट अभी भी देशविदेश में फेमस है और काफी महँगी है।

पटोला साड़ी की दूसरी सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसका रंग कभी हल्का नहीं पड़ता और साड़ी 100 वर्ष तक चलती है।  

पटोला साड़ी में नर्तकी, हाथी, तोता, पीपल की पत्ती, पुष्पीय रचना, जलीय पौधे, टोकरी सज्जा की आकृतियाँ, दुहरी बाहरी रेखाओं के साथ जालीदार चित्र (पूरी साड़ी पर सितारे की आकृतियाँ) तथा पुष्प गहरे लाल रंग की पृष्ठभूमि पर बनाए जाते हैं।  

सम्पूर्ण साड़ी की बुनाई में एक धागा डिजाइन के अनुसार विभिन्न रंगों के रूप में पिरोया जाता है।

यही कला क्रॉस धागे में भी अपनाई जाती है।
इस कार्य में बहुत अधिक परिश्रम की आवश्यकता होती है।
डबल इकत पटोला साडी के रूप में जानी जाने वाली बुनकरों की यह कला अब लुप्त होने के कगार पर है।  

भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध मुगलकाल के समय गुजरात में इस कला का जितने परिवारों ने अपनाया था, उनकी संख्या लगभग 250 थी।

पटोला साड़ी के निर्माण में लागत के हिसाब से बाजार में कीमत नहीं मिल पाती, जिस कारण यह कला सिमटती जा रही है।

इस कार्य में लगने वाली अत्यधिक मेहनत तथा उत्पादन की ऊँची लागत से इसकी माँग में कमी आई तथा इस महत्वपूर्ण कला का ह्रास हुआ।  

पटोला बुनाई की तकनीक इंडोनेशिया में भी जानी जाती थी, जहाँ इसे 'इकत' कहा जाता था।


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